नवम: पाठ: नीतिश्लोकाः संकल्पम् संस्कृत भाग 2़म

          नवम: पाठ:  नीतिश्लोकाः


शिक्षणविन्दुः - नीतिश्लोकाः जीवनस्य पथप्रदर्शकाः भवन्ति ।

 नीतिपरक श्लोक हमारे जीवन को रास्ता दिखाने वाले होते हैं।   



दूरस्थोऽपि न दूरस्थो यो यस्य मनसि स्थितम् ।

 यो यस्य हृदये नास्ति समीपस्थोऽपि दूरतः ॥ 1।। 

प्रथम श्लोक में कहा गया है कि जो जिसके मन में बैठा हुआ है (वह) दूर रहते हुए भी उसके लिए दूर नहीं है, जो जिसके मन में नहीं बसा है (वह) समीप रहते हुए भी दूर ही रहता है।


खनित्वा हि खनित्रेण भूतले वारि विन्दति । 

तथा गुरुगतां विद्यां शुश्रूषुरधिगच्छति ॥ 2 ॥

दूसरे श्लोक में कहा गया है कि कुदाल से खोदकर ही धरती से जल प्राप्त होता है, वैसे ही हृदय में स्थित विद्या को सेवा से (अनुशासन से) ही प्राप्त किया जा सकता है।


तक्षकस्य विषं दन्ते मक्षिकायास्तु मस्तके।

वृश्चिकस्य विषं पुच्छे सर्वांगे दुर्जने विषम् ॥ 3 ॥

तीसरे श्लोक में कहा गया है कि साँप के तो सिर्फ दाँत में विष होता है, मच्छर के मस्तक में विष होता है, बिच्छू के पूँछ में विष होता है पर दुष्ट व्यक्ति के तो पूरे शरीर में विष भरा होता है।

कोकिलानां स्वरो रूपं स्त्रीणां रूपं पतिव्रतम् ।

विद्यारूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम् ॥4॥

चौथे श्लोक में कहा गया है कि कोयल का रूप उसका स्वर है, नारियों का रूप पतिव्रता धर्म का पालन है, कुरूपों का रूप विद्या (ज्ञान) है और तपस्वियों का रूप क्षमा है। 

अजीर्णे भेषजं वारि जीर्णे वारि बलप्रदम् ।

भोजने चाऽमृतं वारि भोजनान्ते विषं भवेत् ॥ 5 ॥

पाँचवें श्लोक में कहा गया है कि अपाच्य में जल दवा के समान है सुपाच्य में जल बल प्रदान करता है, भोजन के बीच में जल अमृत के समान है पर भोजन के अंत में जल जहर के समान होता है। 


दीपो भक्षयते ध्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते ।

यदन्नं भक्षयते नित्यं जायते तादृशी मतिः ॥ 6


छठे श्लोक में कहा गया है कि दीपक काले अँधेरे को खाता है इसीलिए वह काजल (कालिमा)उगलता है। व्यक्ति जैसा अन्न हमेशा खाता है वैसी ही उसकी बुद्धि होती है।



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