श्रीमद्भागवत गीता अध्याय 2 सांख्य योग

 

श्रीमद्भगवद्गीता

 अध्याय 2 - सांख्य योग

 

दोस्तों इस लेख में हम श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय का अध्ययन करेंगे जो हमारे एलटी ग्रेड सिलेबस में है। इस अध्याय में हम श्रीमद्भागवत गीता के दूसरे अध्याय के सभी 72 श्लोकों का हिंदी में अनुवाद करते हुए आशा करते हैं कि यह लेख आपको जरूर पसंद आएगा।

( अर्जुन के शोक का कारण)
संजय उवाच तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णकुलेक्षणम्। विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥ (1)


भावार्थ: संजय ने कहा - इस प्रकार करुणा से आस्था, आंसुओं से भरे व्याकुल उत्सवों वाले, शोकग्रस्त अर्जुन को देखकर मधुसूदन श्रीकृष्ण ने यह शब्द कहा। (1)


श्रीभगवानुवाच कुतस्त्वा कशमलमिदं विषमे समुपस्थितम्।। अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकर्मार्जुन। (2)


भावार्थ: श्री भगवान ने कहा - हे अर्जुन! इस विपरीत स्थिति पर आपके मन में यह अज्ञान कैसे उत्पन्न हुआ? न तो इससे जीवन की पत्रिका को साक्षात्कार द्वारा संचालित किया गया है, न ही इससे स्वर्ग की और न ही यश की प्राप्ति होती है। (2)

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैत्त्वयुपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्तवोतिष्ठ परन्तप ॥ (3)


भावार्थ : इसलिए हे अर्जुन! तू नपुंसकता को प्राप्त मत हो, यह तू शोभा नहीं देता है, हे शत्रुओं का दमनकर्ता! हृदय की तीव्र दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़ा किया गया। (3)

अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं सङ्खये द्रोणं च मधुसूदन। इशुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥ (4)


भावार्थ: अर्जुन ने कहा - हे मधुसूदन! हे शत्रुहंता! मैं युद्धभूमि में किस प्रकार भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य जैसे पूज्यनीय लोगों पर प्रतिबंध लगाऊंगा? (4)

गुरूनहत्वा हि महानुभावा-ञ्च्रेयो भोक्तुं भक्ष्यमपीह लोके। हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुंजीय भोगान रुधिरप्रदिग्धान् ॥ (5)


भावार्थ: ऐसे महापुरुषों को जो मेरे गुरु हैं, कहे मार कर जीने की सीख मैं इस संसार में भिक्षा मांग कर खाना श्रेयस्कर छोड़ देता हूं क्योंकि गुरुजनों को भी मार कर तो इस संसार में खून से सने सुख रूप भोग ही तो भोगने को ।। (5)

न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरियो-यद्वा जयेम यदि वा नो जाययुः। यानेव हत्वा न जिजीविषम-स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥ (6)


भावार्थ: हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना श्रेष्ठ है या युद्ध न करना, और यह भी नहीं जानते कि हम जीतेंगे या वे ही जीतेंगे, धृतराष्ट्र के पुत्रों का वध करके हम जीना भी नहीं चाहते, फिर भी वे हमारे सामने युद्ध हैं -भूमिभूमि में स्थित हैं। (6)

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मं त्वं प्रपन्नम ॥ (7)


भावार्थ: कृपा और दुर्बल स्वभाव के कारण अपने कर्तव्य के विषय में मोहित हुआ, मैं आपसे वह साधन पूछता हूं जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो, उसे निश्चित करके कहिए, अब मैं आपका शिष्य हूं, और आपका शरणागत हूं, कृपया मुझे उपदेश दीजिए। (7)

न हि प्रापश्यामि ममापनुद्या-द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियानाम्।।
अवाप्य भूमावसपत्रमृद्धं-राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥ (8)


भावार्थ: मुझे ऐसा कोई साधन नहीं दिखता जो मेरी इंद्रियों के सूखने वाले शोक को दूर कर सके, स्वर्ग में धन धान्य-संपन्न देवताओं के सर्वोच्च इंद्र-पद और पृथ्वी पर निष्कंटक राज्य को प्राप्त कर सके, मैं भी उस उपाय को नहीं देखता हूं। (8)

संजय उवाच एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप। न योत्स्य इतिगोविन्दमुक्त्वा तुष्णि बभुव ह ॥ (9)


भावार्थ: संजय ने कहा- हे राजन! निद्रा को सोने वाला अर्जुन ने इंद्रियों के स्वामी श्रीकृष्ण से कहा, "हे गोविंद मैं युद्ध नहीं करता" और चुप हो गया। (9)

तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत। सेन्योरभयोर्मध्ये विषेदन्तमिदं वाचः ॥ (10)


भावार्थ: हे भारतवंशी! इस समय दोनों सेना के बीच शोक-ग्रस्त अर्जुन से इंद्रियों के स्वामी श्रीकृष्ण ने हंसते हुए कहा से यह शब्द कहा। (10)

( सांख्ययोग का विषय) श्री भगवानुवाच अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे। गतासूनगतसूनश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥ (11)



भावार्थ: श्री भगवान ने कहा - हे अर्जुन! वे शोक करते हैं जो शोक करने योग्य नहीं है और पंडितों की तरह की बातें करते हैं। जो विद्वान होते हैं, वे न तो जीवित प्राणियों के लिए होते हैं और न ही मृत प्राणियों के लिए शोक करते हैं। (11)

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपः। न चैव न भविष्यमः सर्वे वयमतः परमम् ॥ (12)


भावार्थ: ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं किसी भी समय में नहीं था, या तू नहीं था या ये सभी राजा नहीं थे और ऐसा भी नहीं होगा कि भविष्य में हम सब साथ नहीं रहेंगे। (12)

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कुमारं यौवनं जरा। तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥ (13)


भावार्थ : जिस प्रकार जीवात्मा इस शरीर में बाल अवस्था से युवा अवस्था और वृद्ध अवस्था में असामान्य रूप से रहता है, उसी प्रकार जीवात्मा इस शरीर की मृत्यु पर दूसरे शरीर में चला जाता है, जबकि से परिवर्तन से धीर मनुष्य मोह को प्राप्त नहीं होता है। ।। (13)

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः। आगमापायिनोऽनित्यस्तस्तितिक्षस्व भारत ॥ (14)


भावार्थ: हे कुन्तीपुत्र! सुख-दुःख को देने वाले विषयों के क्षणिक संयोग तो केवल इन्द्रिय-बोध से उत्पन्न होने वाले भूत और गर्मी के मौसम के समान आने-जाने वाले हैं, इसलिए हे भारतवर्ष! अविचल व्यवहार से दूसरे सहन करने का प्रयास करें। (14)

यं हि न व्यथयन्तयेते पुरुषं पुरुषर्षभ। समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ (15)


भावार्थ: हे पुरुष श्रेष्ठ! जो मनुष्य दुःख और सुख में कभी पदावनत नहीं होता, दोनों विचारधारा में सम-भाव होता है, उसके लिए धीर-पुरुष निश्चित रूप से मुक्ति के योग्य होता है। (15)

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ॥ (16)


भावार्थ : तत्त्वनिर्देशकों के निष्कर्ष से पता चला कि सत् वस्तु (शरीर) का कोई अस्तित्व नहीं है और सत् वस्तु (आत्मा) में कोई परिवर्तन नहीं होता है। (16)    

अज्ञानि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं तत्तम्। विनाशमव्ययस्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥ (17)


भावार्थ: जो सभी शरीरों में व्याप्त है, उस आत्मा को ही तू अज्ञानी समझता है, जिसे नष्ट करने में कोई भी समर्थ नहीं है। (17)

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः। अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्मादुध्यस्व भारत ॥ (18)


भावार्थ : इस अज्ञात, अमाप, नित्य-स्वरूप आत्मा के ये सभी शरीर नष्ट होने वाले हैं, अत: हे भरतवंशी! तू युद्ध कर. (18)

य एनं वेत्ति हन्तरं यश्चैनं मन्यते हत्म्। उभौ तू न विजानितो नायं हन्ति न हन्यते ॥ (19)


भावार्थ: जो इस आत्मा को मारने वाला है और जो नष्ट हो गया है, वे दोनों ही अज्ञानी हैं, क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न ही किसी द्वारा मारा जाता है। (19)

न जायते मृयते वा कदाचि-न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो-न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ (20)


भावार्थ: यह आत्मा किसी भी काल में भी जन्म लेती है और न ही मरती है और न ही जन्म लेती है, यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नष्ट नहीं हो सकती। (20)

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्। कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्॥ (21)


भावार्थ: हे पृथापुत्र! जो मनुष्य इस आत्मा को अज्ञानी, शाश्वत, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह मनुष्य किसी को कैसे मारा जा सकता है या किसी के द्वारा कैसे मारा जा सकता है? (21)

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णा नन्यानि संयाति नवानि देहि ॥ (22)


भावार्थ : जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों का त्याग कर दूसरे नये वस्त्रों को धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा घटिया शरीरों का त्याग कर नये शरीरों को धारण करती है। (22)

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ (23)


भावार्थ: यह आत्मा न तो शस्त्र द्वारा अज्ञात हो सकती है, न अग्नि द्वारा प्रज्वलित की जा सकती है, न जल द्वारा सोखया जा सकती है और न ही वायु द्वारा सुखया जा सकती है। (23)

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च। नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ (24)


भावार्थ: यह आत्मा न तो तोड़ा जा सकता है, न इसे जलाया जा सकता है, न इसे समझाया जा सकता है और न ही सुखया किया जा सकता है, यह आत्मा स्थिर, सर्वाभाविक, अविकारी, स्थिर और सदैव एक सा बनी रहने वाली है। (24)

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयामुच्यते। तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥ (25)


भावार्थ: यह आत्मा अदृश्य, अकल्पनीय, और आध्यात्म कहा जाता है, इस प्रकार की आत्मा को अच्छी तरह से जानना शोक करने योग्य नहीं है। (25)

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्। तथापि त्वं महाबाहो नैव शोचितुमर्हसि ॥ (26)


भावार्थ: हे महाबाहु! यदि तू इस आत्मा को सदा जन्म लेने वाला और सदा मृत्यु लेने वाला दर्शाता है, तो तू भी इस प्रकार शोक करने योग्य नहीं है। (26)

जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्घ्रुवं जन्म मृतस्य च। तस्माद्परिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ (27)


भावार्थ: जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के लक्षण पुनर्जन्म निश्चित है, अत: इस बिना उपाय वाले विषय में तु शोक करना उचित नहीं है। (27)

अव्यक्तादिनि भूतानि व्यक्तिमध्यानि भारत। अव्यक्तनिधानन्येव तत्र का परिदेवना॥ (28)


भावार्थ: हे भारतवंशी! संपूर्ण जीव जन्म से पहले अप्रकट रहता है और मृत्यु के बाद भी अदृश्य हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही लुक देखा जा सकता है, अत: शोक करने की कोई आवश्यकता नहीं है? (28)

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः। आश्चर्यवच्चनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥ (29)


भावार्थ: कोई भी इस आत्मा को आश्चर्यचकित करने जैसा दिखता है, किसी को आश्चर्यचकित करने जैसा वर्णन करता है और कोई भी आश्चर्यजनक की तरह सुनता है और कोई-कोई तो उसके विषय में सुनने में भी कुछ समझ में नहीं आता है। (29)

देहि नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत। तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ (30)


भावार्थ: हे भारतवंशी! इस आत्मा का शरीर में कभी वध नहीं किया जा सकता, अत: किसी भी जीव के लिए शोक करने की आवश्यकता नहीं है। (30)

(धर्म के अनुसार युद्ध का निरूपण) स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकंपितुमर्हसि। धर्म्याधि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥ (31)



भावार्थ: हे अर्जुन! क्षत्रिय होने के कारण अपने धर्म का विचार करके भी आर्द्र कर्म करना उचित नहीं है, क्योंकि क्षत्रिय धर्म के लिये युद्ध करने के अलावा अन्य कोई श्रेष्ठ कार्य नहीं है। (31)

यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम।। सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥ (32)


भावार्थ: हे पार्थ! वे क्षत्रिय भाग्यवान हैं जिन्हे ऎसॆ युद्ध के अवसर आपको प्राप्त होते हैं जिससे उनके लिए स्वर्ग के द्वार खुल जाते हैं। (32)

अथ चेत्त्विमिमं धर्म्यं सग्रामं न करिष्यसि। ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥ (33)


भावार्थ: यदि तू इस धर्म के लिए युद्ध नहीं करेगा तो कीर्ति को खोकर कर्तव्य-कर्म की अनदेखी करने पर पाप को प्राप्त करना होगा। (33)

अकीर्तिं चापि भूतानि कथ्यिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।। संभवितस्य चाकीर्ति मर्मणादतिरिच्यते ॥ (34)


भावार्थ: लोग हमेशा तुम्हारे बहुत समय तक रहने वाली अपकीर्ति का भी वर्णन करेंगे और सम्मानित मनुष्य के लिए अपकीर्ति मृत्यु से भी अधिक है। (34)

भयाद्राणादुपरतं मन्स्यन्ते त्वं महारथः। येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥ (35)


भावार्थ: जिन-जिन वीरों की दृष्टि में तू सबसे पहले प्रतिष्ठित हुआ है, वे महारथी लोग डर के कारण युद्ध-भूमि से हटा दिए गए समझ करतुष्ट मानेंगे। (35)

अवाच्यवदांश्च बहुनात् वदिष्यन्ति तवाहिताः। निन्दन्तस्तव शक्तिं ततो दुःखतरं नु किम् ॥ (36)


भावार्थ: तेरे शत्रु की निंदा करते हुए तू बहुत से कटु वचन भी बोलता है, तेरे लिए इससे अधिक दुःख:खद और क्या हो सकता है? (36)

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम।। तस्मादुतिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥ (37)


भावार्थ: हे कुन्तीपुत्र! यदि तू युद्ध में मारा गया तो स्वर्ग को प्राप्त करेगा और यदि तू युद्ध जीतेगा तो पृथ्वी का साम्राज्य भोगेगा, अत: तू दृढ़-संकल्प करके खड़ा हो जा और युद्ध कर। (37)

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभलाभौ जयजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ (38)


भावार्थ: सुख या दुःख, हानि या लाभ और विजय या पराजय का विचार त्याग कर युद्ध करने के लिए ही युद्ध कर, सा करने से तू पाप प्राप्त नहीं करेगा। (38)

(कर्मयोग का विषय) एषा तेऽभिहिता साङ्खये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु। बुद्धदेव युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥ (39)


भावार्थ: हे पृथापुत्र! यह बुद्धि आपके लिए ज्ञान-योग (सांख्य-योग) के विषय में बताई गई है और अब तू निष्काम कर्म-योग के विषय में सुनता है, जिससे तू इस बुद्धि से कर्म चाहता है तो तू कर्मों के बंधन से अपने को मुक्त कर सकता है। (39)  

येनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवतो न विद्यते। स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥ (40)


भावार्थ: इस प्रकार कर्म करने से न तो कोई हानि होती है और न ही फल-रूप दोष लगता है, इस निष्काम कर्म-योग की थोड़ी-सी भी प्रगति जन्म-मृत्यु के महान भय से रक्षा करती है। (40)

व्यवसायआत्मिका बुद्धिरेकेह कुरुन्नंदन। बहुशाका ह्यन्नताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥ (41)


भावार्थ: हे कुरुनन्दन! इस निष्काम कर्म-योग में दृढ-प्रज्ञा बुद्धि एक ही होती है, दूसरा जो दृढ-प्रज्ञा नहीं है उनकी बुद्धि अविद्या में विभक्त रहती है। (41)

यामिमां पुष्पितं वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः। वेदवादरतः पार्थ नान्यदस्ति वादिनः ॥ (42) कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्। क्रियाविश्लेषणभूलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥ (43)




भावार्थ : हे पृथापुत्र! अल्प-ज्ञानी मनुष्य वेदों के उन अलंकारिक शब्दों के साथ, जो स्वर्ग की प्राप्ति, उत्तम जन्म और ईश्वरीय आदि की प्राप्ति के लिए अनेकम सकाम कर्म-फल की विविध गतिविधियों का वर्णन करते हैं, इंद्रिय-तृप्ति और ईश्वरीय जीवन की इच्छा के कारण वे कहते हैं कि इससे वद्धकर और कुछ नहीं है। (42-43)

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्‌। व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥ (44)


भावार्थ: जो मनुष्य इन्द्रियों के भोग तथा भौतिक ईश्वर के प्रति आसक्त होने से ऎसी वस्तु से मोहग्रस्त हो जाता है, उस ज्ञान में भगवान के प्रति दृढ़-संकल्पित बुद्धि नहीं होती। (44)

त्रैगुण्यविषय वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन। निर्द्वंद्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥ (45)


भावार्थ: हे अर्जुन! वेदों में मुख्य रूप से प्रकृति के गुण-दोष का वर्णन किया गया है, इनमें वेदों के गुण-दोष से ऊपर उठकर, हर्ष-शोक आदि द्वन्द्वों से तथा सुरक्षा की सारी चिन्मय से मुक्त आत्म-परायण बन। (45)

यवनर्थ उदपाणे सर्वतः संप्लुतोदके। तावांसर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥ (46)


भावार्थ : सभी ओर से पवित्र धार्मिक ग्रंथ के प्राप्त हो जाने पर छोटे-छोटे धार्मिक स्थलों के प्रति मनुष्य का अनावरण किया जाता है, ब्रह्म को तत्व से दर्शन वाले ब्राह्मण के सभी वेदों से महान ही प्रकट किया जाता है। (46)

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्माणि॥ (47)


भावार्थ: तेरे कर्म करने का अधिकार है, उसके फल में अधिकार नहीं है, इसलिए तू न तो अपने-अपने कर्मों के फल का कारण समझ और कर्म न करने में तेरी आस्था भी न हो। (47)

योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय। सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ (48)


भावार्थ: हे धनंजय! तू सफलता तथा विफ़लता में आशक्ति को त्याग कर सम-भाव में स्थित हुआ अपना कर्तव्य समझकर कर्म कर, इसी समता में ही समत्व बुद्धि-योग कहलाती है। (48)

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाधनंजय। बुद्धौ शरणमन्विच कृपाः फलहेतवः ॥ (49)


भावार्थ: हे धनंजय! इस समत्व बुद्धि-योग के द्वारा समस्त निन्दनीय कर्म से दूर रहकर एक ही भाव से अपने (परमात्मा) के शरण-ग्रहण कर, सकाम कर्म के फल को जन्म देने वाले मनुष्य को अत्यधिक कंजूस होता है। (49)

बुद्धियुक्तो जहातिह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्माऔद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥ (50)


भावार्थ: समत्व बुद्धि-योग के द्वारा मनुष्य इसी जीवन में अपने-अपने को पुण्य और पाप कर्मों से मुक्त कर सकता है। अत: तू इसी योग में लग जा, क्योंकि इसी योग के द्वारा ही सभी कार्य प्रतियोगी-अंक पूर्ण होते हैं। (50)

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनुष्यिणः। जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनाम्यम् ॥ (51)


भावार्थ: इस समत्व बुद्धि-योग से ऋषि-मुनि और भक्त सकाम-कर्मों से उत्पन्न फल को त्याग कर जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त होकर परम-पद प्राप्त होता है। (51)

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतित्रिष्यति। तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥ (52)


भावार्थ: जिस समय में तेरी बुद्धि मोह रूपी समाज को भली-भांति पार कर जाएगी, उसी समय तू सुने और सुनने योग्य सभी भोगों से मुक्ति प्राप्त हो जाएगी। (52)

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला। समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥ (53)


भावार्थ: वैदिक ज्ञान के वचनों के श्रवण से हुई तेरी बुद्धि जब एकनिष्ठ और स्थिर हो जाएगी, तब तू आत्म-साक्षात्कार करके उस दिव्य अलौकिक स्वरूप को प्राप्त हो जाएगा। (53)

(स्थिर-प्रज्ञ पुरुष के लक्षण) अर्जुन उवाच स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव। स्थितधिः किं प्रभशेत् किमासीत् व्रजेत् किम्॥ (54)



भावार्थ: अर्जुन ने कहा - हे केशव! अध्यात्म में स्थिर-बुद्धि वाले मनुष्य का लक्षण क्या है? वह स्थिर-बुद्धि मनुष्य कैसे बोलता है, किस प्रकार की आकृतियाँ और प्रकार कौन सा है? (54)

श्रीभगवानुवाच प्रजाहति यदा कामां सर्वान्पार्थ मनोगतन्।। आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञास्तदोच्यते ॥ (55)


भावार्थ: श्री भगवान ने कहा - हे पार्थ! जब मनुष्य मनोरथ से उत्पन्न होने वाली इन्द्रिय-तृप्ति की सभी प्रकार की कामनाओं का परित्याग कर देता है, जब उसका मन पवित्र हो जाता है, तो उसके मन में आत्मा ही सन्तोष प्राप्त कर लेती है, तब वह मनुष्य को वास्तविक रूप में स्थित (स्थितप्रज्ञ) कहा जाता है। (55)

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु अतीतस्पृहः। वीतराग्भयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥ (56)


भावार्थ: दुःखों की प्राप्ति पर उसका मन नहीं होता , सुखों की प्राप्ति की इच्छा नहीं होती, जो अभक्ति, भय और क्रोध से मुक्त होते हैं, ऐसा स्थिर मन वाला मुनि कहा जाता है। (56)

यः सर्वत्राणभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।। नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (57)


भावार्थ: इस संसार में जो मनुष्य न हो तो शुभ की प्राप्ति से हर्षित होता है और न अशुभ के प्राप्त होने पर द्वेष्ट करता है, ऐसी बुद्धि वाला पूर्ण ज्ञान में स्थिर होता है। (57)

यदा संहारते चायं कूर्मोऽङ्गनिव सर्वशः।
इन्द्रियाणिन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (58)


भावार्थ: जिस प्रकार कछुवा सब ओर से अपने अंगों को सम्मिलित करता है, उसी प्रकार जब मनुष्य इन्द्रियों को इन्द्रिय-विषयों से सब प्रकार से खींचता है, तब वह पूर्ण रूप से अपने आप में स्थिर होता है। (58)

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः। रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते ॥ (59)


भावार्थ : इंद्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले मनुष्य के विषय तो मिट जाते हैं, लेकिन उनमें स्थिर बुद्धि वाले मनुष्य की आस्था बनी रहती है, से स्थिर बुद्धि वाले मनुष्य की आस्था भी परमात्मा का साक्षात्कार लेकर मिलती है। (59)

यत्तो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः। इन्द्रियाणि प्रमाथिनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥ (60)


भावार्थ: हे अर्जुन! इंद्रियां इतनी प्रबल और वेगवान हैं कि जो मनुष्य इंद्रियों को वश में करने का प्रयास करता है, वह विवेकी मनुष्य के मन को भी बल देना हर संभव है। (60)

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त असित मत्परः। वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (61)


भावार्थ: जो मनुष्य इन्द्रियों को पूर्णतया वश में रखता है वह अपने को मुझमें स्थिर कर देता है, वह मनुष्य इन्द्रियों को पूर्णतया वश में रखता है। 61)

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषुपजायते। संगत्संजयते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ (62)


भावार्थ: इंद्रियों के विषयों का चिंतन करने से मनुष्य को उन विषयों की आशक्ति मिलती है, ऐसी आशक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना से विघ्न उत्पन्न होता है। (62)

क्रोधादभवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ (63)


भावार्थ: क्रोध से अत्यधिक पूर्ण मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मरण-शक्ति में ब्रह्माण्ड उत्पन्न होता है, स्मरण-शक्ति में ब्रह्माण्ड होने से बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि के नष्ट होने से मनुष्य का अन्धो-पतन हो जाता है। (63)

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियश्चरण।। आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥ (64)


भावार्थ : समस्त राग-द्वेष से मुक्त रहने वाला मनुष्य अपनी इन्द्रियों के संयम द्वारा मन को वश में करके भगवान की पूर्ण कृपा प्राप्त कर सकता है। (64)

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते। आकर्षकचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥ (65)


भावार्थ: इस प्रकार भगवान की कृपा प्राप्त होने से संपूर्ण दुखों का अंत हो जाता है तब उस प्रसन्नचित्त मन वाले मनुष्य की बुद्धि शीघ्र ही एक परमात्मा में पूर्ण रूप से स्थिर हो जाती है। (65)

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चाक्तस्य भावना। न चाभावयतः शांतिरशांतस्य कुतः सुखम्॥ (66)


भावार्थ: जिस मनुष्य की इंद्रियाँ वश में नहीं होतीं, उस मनुष्य की न तो बुद्धि स्थिर होती है, न मन स्थिर होता है और न ही शांति प्राप्त होती है, उस मनुष्य की शांति-रहित मनुष्य को सुख किस प्रकार संभव है? (66)

इन्द्रियानां हि चर्तां यनमनोऽनुविधीयते। तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥ (67)


भावार्थ: जिस प्रकार पानी पर तैरने वाली नाव को वायु हर लीला है, उसी प्रकार विचरण करती है इन्द्रियों में से किसी एक पर मन इन्द्र लगा रहता है, वह एक इन्द्रिय ही उस मनुष्य की बुद्धि को हर लीला है। (67)

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः। इन्द्रियाणिन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (68)


भावार्थ: हे महाबाहु! सिद्ध इंद्रियाँ अपने-अपने विषयों से सभी प्रकार से विरक्त रहती हैं, वही मनुष्य की बुद्धि स्थिर रहती है। (68)

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ (69)


भावार्थ: जो सभी प्राणियों के लिए रात्रि के समान होता है, वह बुद्धि-योग में स्थित मनुष्य के लिए जगने का समय होता है और जो सभी प्राणियों के लिए रात्रि के समान होता है, वह स्थिर-प्रज्ञ मुनि के लिए वह रात्रि के समान होता है है. (69)

आपूर्यमानमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।। तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामि॥ (70)


भावार्थ: जिस प्रकार अनेकों नदियाँ सभी ओर से उत्तम, दृड़-प्रतिष्ठा वाले समुद्र में समुद्र को पवित्र करती हैं, उसी प्रकार सभी इच्छाएँ स्थित-प्राज्ञ मनुष्य में बिना विकार उत्पन्न ही समा जाती हैं, वही मनुष्य परम-शान्ति प्राप्त होता है, न कि इंद्रिय सुख बाज़ार वाला। (70)

विहाय कामाण्यः सर्वान्पुमंशचरति निष्स्पृहः। निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति ॥ (71)


भावार्थ : जो मनुष्य समस्त भौतिक कामनाओं का परित्याग कर इच्छा-रहितता, ममता-रहितता तथा मानवता-रहित रहता है, वही परम-शांति प्राप्त कर सकता है। (71)

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनं प्राप्य विमुह्यति। स्थितवास्यमन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥ (72)


भावार्थ : हे पार्थ! यह आध्यात्मिक जीवन (ब्रह्म की प्राप्ति) का पथ है, जिसे प्राप्त करके मनुष्य कभी मोहित नही होता है, यदि कोई जीवन के अन्तिम समय में भी इस पथ पर स्थिति हो जाता है तब भी वह भगवद्‍प्राप्ति करता है। (72)

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गीतासार-योगो नाम द्वितीयोऽध्यायः॥
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवदगीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में गीतासार-योग नाम का दूसरा अध्याय सम्पूर्ण हुआ॥

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मित्रों इसी तरह श्रीमद भगवत गीता का दूसरा अध्याय हम एलटी ग्रेड परीक्षा के लिए तैयार करेंगे मैंने नीचे लिंक में कठोपनिषद की प्रथम  बल्ली का लिंक दिया है जिस पर जाकर आप कठोपनिषद  की प्रथम बल्ली का अध्ययन कर सकते हैं। आशा है आप सभी को वह अध्याय जरूर पसंद आएगा  आपका कोई प्रश्न है तो नीचे कमेंट बॉक्स में लिखकर जरूर बताएं धन्यवाद।

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